

भोपाल. लालपरेड मैदान में 10 सितंबर से शुरू हो रहे दसवें
विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रदेश की सबसे बड़ी हिंदी संस्था श्री मध्यभारत
हिंदी साहित्य समिति को ही आमंत्रण नहीं मिला है। 1910 में इंदौर में बनी
यह वही संस्था है, जहां 1918 में गांधीजी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की
बात की थी। संस्था में अब भी हिंदी से जुड़े 475 सक्रिय सदस्य हैं। अब तक
90 शोधार्थी यहां से पीएचडी कर चुके हैं। सिर्फ यही संस्था नहीं हिंदी के
बड़े साहित्यकारों को भी अब तक न्यौता नहीं दिया गया है। साहित्यकारों का
यह भी कहना है कि सिर्फ प्रधानमंत्री के शामिल होने से हिन्दी सम्मेलन
सार्थक नहीं हो हो जाएगा। साहित्य की ऐसी उपेक्षा सभ्य समाज के लिए ठीक
नहीं है।
सांसद अनिल माधव दवे ने प्रदेशभर के हिंदी प्रेमियों और लेखकों को
आमंत्रण पहुंचाने का जिम्मा कमिश्नर और कलेक्टरों को दिया है। इतना ही नहीं
जिन्हें आमंत्रण पत्र दिए जा रहे हैं, उनकी सूची भी मांगी है। कुछ साहित्यकारों ने हिंदी की
बोलियों की उपेक्षा पर भी नाराजगी जताई है। उनका कहना है कि
इससे तो भाषा
और बोलियों के बीच की खाई और बढ़ेगी।
मुझे नहीं पता हिंदी के लिए उनकी क्या दृष्टि है...
संस्थागत स्तर पर आयोजन की दूरदृष्टि नहीं दिख रही है। आयोजक यदि
सिर्फ प्रधानमंत्री के आने के बोध को पूरे देश का आमंत्रण बोध समझ रहे हैं
तो यह उनकी समझ हो सकती है। हिंदी अलग-अलग बोलियों से ही शक्ति ग्रहण करके
शक्तिशाली बनी है। हिंदी का रूपक ही बोलियां हैं। ऐसे में बोलियों की
उपेक्षा किया जाना समझ से परे है।
-प्रभु जोशी, वरिष्ठ साहित्यकार
हमें तो आमंत्रण तक नहीं भेजा गया
संस्था के साहित्य मंत्री हरेराम वाजपेयी ने छह महीने पहले विदेश
मंत्रालय को पत्र लिखकर एक विशेष सत्र का आग्रह किया था, लेकिन उसका कोई
जवाब नहीं मिला। इसके बाद विदेश मंत्रालय को स्मरण पत्र भी भेजा गया लेकिन
वहां से भी कोई जवाब नहीं आया। फिर हमने कलेक्टाेरेट में संपर्क कर आमंत्रण
पत्र की जानकारी ली तो कहा गया कि सूची भेज दी गई है। संस्था के
प्रधानमंत्री प्रो. सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी, सूर्यकांत नागर को भी कोई
आमंत्रण पत्र नहीं मिला है। हम खुद भी अचंभित हैं।
- अरविंद ओझा, प्रचार मंत्री, श्री मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति, इंदौर
ऐसा रवैया देखकर अब जाने में रुचि नहीं
मुझे तो आज तक किसी आयोजक ने संपर्क नहीं किया। न ही अब तक कोई
आमंत्रण पत्र मिला है। मैं अब भी हिंदी साहित्य सम्मेलन से जुड़ा हूं लेकिन
ऐसा रवैया देखकर विश्व हिंदी सम्मेलन में जाने की रूचि अब नहीं रही। हिंदी
सम्मेलन के लिए बस हमारी शुभकामनाएं हैं। सम्मेलन खूब सफल हो। बस यही
कामना है।
- प्रो. सुरेश आचार्य, सेवानिवृत्त विभागाध्यक्ष, डॉ. हरी सिंह गौर विवि, सागर
मैं खुद भी अचंभित हूं कि सरकार की आखिर हिंदी सम्मेलन को लेकर क्या
नीति है। सभ्य समाज में साहित्य की उपेक्षा कैसे हो सकती है। मुझे भी अब
तक न तो किसी ने संपर्क किया न ही सम्मेलन में शामिल होने के लिए कोई
आमंत्रण पत्र मिला। मैं तो कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हूं।
-ध्रुव शुक्ल, साहित्यकार, भोपाल
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