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संथारा प्रथा से सुप्रीम कोर्ट ने हटाया बैन

नई दिल्ली: जैन कम्युनिटी की संथारा/सल्लेखना प्रथा पर रोक लगाते राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले पर सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया। राजस्थान हाईकोर्ट ने इस प्रथा को सुसाइड जैसा क्राइम बताते हुए इसे बैन कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अब राज्य सरकार और केंद्र को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। जैन कम्युनिटी के संगठनों ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पिटीशंस लगाई थीं।
 
क्या है मामला
मामला पिछले नौ साल से कोर्ट में था। निखिल सोनी ने 2006 में पिटीशन दायर की थी। उनकी दलील थी कि संथारा इच्छा-मृत्यु की ही तरह है। हाईकोर्ट ने कहा था कि संथारा लेने वालों के खिलाफ आईपीसी की धारा 309 यानी सुसाइड का केस चलना चाहिए। संथारा के लिए उकसाने पर धारा 306 के तहत कार्रवाई की जानी चाहिए। वहीं, जैन संतों ने इस फैसले का विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि कोर्ट में सही तरीके से संथारा की व्याख्या नहीं की गई। संथारा का मतलब आत्महत्या नहीं है, यह आत्म स्वतंत्रता है। 
 
आखिर क्या है संथारा?
जैन समाज में यह हजारों साल पुरानी प्रथा है। इसमें जब व्यक्ति को लगता है कि उसकी मृत्यु नजदीक है तो वह खुद को एक कमरे में बंद कर खाना-पीना छोड़ देता है। मौन व्रत रख लेता है। इसके बाद वह किसी भी दिन देह त्याग देता है।
 
हर साल कितने लोग लेते हैं संथारा?
वैसे इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। लेकिन जैन संगठनों के मुताबिक हर साल 200 से 300 लोग संथारा के तहत अपने प्राण छोड़ देते हैं। अकेले राजस्थान में ही यह आंकड़ा 100 से ज्यादा है।
 
हजारों साल की प्रथा का अब विरोध क्यों?
प्रथा बेशक हजारों साल पुरानी हो, लेकिन बदलते वक्त के साथ इसका विरोध बढ़ने लगा था। इसने जोर पकड़ा 2006 में जब कैंसर से जूझ रही जयपुर की विमला देवी को एक जैनमुनि ने संथारा की अनुमति दी। इसके बाद विमला देवी ने 22 दिनों तक अन्न-जल त्याग कर जान दे दी। इस केस को बाद में हाईकोर्ट में लगाई गई पिटीशन के साथ जोड़कर चुनौती दी गई थी। 
 
जैन समाज क्यों नाराज था?
जैन आचार्य मुनि लोकेश का कहना है कि सुसाइड डिप्रेशन जैसी स्थिति में होता है, जबकि संथारा प्रथा आस्था का विषय है। यह आवेश में किया गया कृत्य नहीं,बल्कि सोच-समझकर लिया गया व्रत है।
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